जनसंख्या: एक कैद
इस खूबसूरत धरती पर, ना जाने कितने सारे प्राणी रहा करते हैं। हर प्राणी, खुद में ख़ास होते हैं। इन सभी प्राणियों में सबसे ज्यादा अक्लमंद और बुद्धिमान प्राणी हैं, इंसान। सिर्फ, अक्लमंदी हीं एक ऐसी चीज हैं जो इंसानो को सभी प्राणियों से अलग बनाती हैं।
इंसान, अपनी कल्पनाशक्ति के बदौलत, बाकी के प्राणियों से ज्यादा तरक्की कर सकते हैं, नई-नई चीजों की खोज से लेकर प्रकृति और अपने आस-पास के वातावरण में मौजूद हर छोटी और बड़ी चीजों के अनुकूल खुद को ढाल सकते हैं।
लेकिन, सभी प्राणियों में एक चीज सामान्य है और वो है ,वंश
विस्तार। इस धरती पर अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए, और लम्बे समय तक अपने नाम को ज़िन्दा
रखने के लिए प्राणियों को अपने ही जैसे दूसरे प्राणियों की आवश्यकता होती है।
इसकी वजह से वो प्रजनन क्रिया द्वारा अपना वंश विस्तार करते
हैं। बाकी प्राणियों में तो उनकी जनसंख्या सामान्य है, लेकिन इंसान खुद का वंश विस्तार
करते-करते अपनी जनसंख्या का अनुकूलन भूल गए, और पुरानी वंश विस्तार की परंपरा को जारी
रखते हुए उन्हें ये अंदाजा ही नहीं है की उनकी आबादी इस धरती पर कितनी बढ़ चुकी है।
बढ़ती जनसंख्या इंसानों के लिए कैद कैसे है?
इंसान, इस धरती पर आजादी से जीते-जीते कब जनसंख्या की दौड़
में कैद हो गए उन्हें पता ही नहीं चला। जनसंख्या दरअसल कोई कैद नहीं बल्कि इस धरती
पर अपना वर्चस्व लम्बे समय तक बनाए रखने का पारम्परिक और सबसे कामयाब तरीका रहा है।
लेकिन, समझने की बात ये है, की अति, किसी भी चीज में हानिकारक है।
संतुलन किस भी चीज में ज़रूरी होता है। धरती पर सभी जीवों
के रहने लायक सीमित क्षेत्र है। अगर क्षेत्र में पेअर रखने की जगह से 10 गुने प्राणी
हो जाएंगे, तो सभी जीवों का सॉफ्ट कार्नर, और पर्सनल प्राइवेसी ख़त्म हो जाएगी। लोगों
के एक सीमित क्षेत्र में सिमटने से सभी जीव बेचैन हो जाएंगे, उनके लिए सांस लेना मुश्किल
हो जाएगा और वो सब अंदर ही अंदर घुट कर रह जाएंगे।
इस नजरिये से कहा
जाए तो हमारे जैसे बुद्धिमान इंसान एक अत्यधिक जनसंख्या वाले धरती पर जनसंख्या के जाल
में कैद हो कर रह जाएंगे।कुछ ऐसा ही जाने-अनजाने में हम सब के साथ हो रहा है, और पुराने
जमाने के लोग जो आँखें मूँद कर सदियों से इसे निरंतर अपनाते आएं हैं, वो इसे खुद भी
आने वाले पीढ़ियों को इसे आगे बनाए रखने के लिए उनपर दबाव बनाते हैं।
इसका नतीजा ये है की अगर कोई इस पर रोक लगाने के लिए आवाज
उठाने की कोशिश भी करता है तो उसे सब डांट कर चुप करा देते हैं और ये तर्क देते हैं
की हमसब प्राकृतिक रूप से जन्में हैं और अंत में प्रकृति में हीं मिल जाते हैं।
प्रकृति जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए प्राकृतिक आपदा
ला कर इस धरती को हल्का करते हुए जनसंख्या नियंत्रित कर लेती है। हम सब को ये समझने
की ज़रुरत है कि, भले ही प्रकृति सबकुछ स्वयं नियंत्रित कर लेती है लेकिन फिर भी प्रकृति
के प्रति हम सबकी एक आवश्यक जिम्मेदारी भी बनती है, जिसका कि एक मात्र उपाय है, और
उपाय है जनसंख्या नियंत्रण।
कारक जो जनसंख्या के दुष्प्रभाव की ओर इशारा करते हैं
- सीमित प्राकृतिक संसाधन
- बढ़ता प्रदूषण
- मांग और आपूर्ति में असंतुलन
सीमित प्राकृतिक संसाधन
सीमित प्राकृतिक संसाधन जैसे जल, भूमि,
खनिज और वनों की
मात्रा पृथ्वी पर सीमित है,
जबकि जनसंख्या लगातार बढ़ कर असीमित
होती जा रही है।
बढ़ती जनसंख्या इन संसाधनों पर
अत्यधिक दबाव डालती है,
जिससे जल और खाद्य
संकट, वनों की कटाई,
धरती का नाश और प्रदूषण जैसी
समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
संसाधनों का असंतुलित उपयोग
पर्यावरणीय अस्थिरता को बढ़ाता है
और आने वाली पीढ़ियों
के लिए इनका अभाव
पैदा करता है। अतः
सीमित प्राकृतिक संसाधनों पर बढ़ती जनसंख्या
का दबाव न केवल
पर्यावरण को नुकसान पहुँचाता
है, बल्कि मानव जीवन की
गुणवत्ता और अस्तित्व के
लिए भी गंभीर खतरा
बन जाता है।
बढ़ता प्रदूषण
बढ़ती जनसंख्या प्रदूषण के
मुख्य कारणों में से एक है। जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ती है, वैसे-वैसे उद्योग, वाहन,
आवास और उपभोग की वस्तुओं की मांग भी बढ़ती जाती है। इन सबके परिणामस्वरूप वायु,
जल, भूमि और ध्वनि प्रदूषण में भारी वृद्धि होती है। अधिक जनसंख्या अधिक कचरा और
गंदा पानी उत्पन्न करती है, जिससे नदियाँ और झीलें प्रदूषित होती हैं।
वाहनों की बढ़ती संख्या से
वायु में जहरीली गैसें मिलती हैं, जो मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों के लिए
हानिकारक हैं। इस प्रकार, बढ़ता प्रदूषण बढ़ती जनसंख्या का सीधा और गंभीर
दुष्प्रभाव है।
मांग और आपूर्ति में असंतुलन
बढ़ती जनसंख्या के कारण वस्तुओं और सेवाओं की मांग तेजी से बढ़ जाती है, जबकि उनकी आपूर्ति सीमित रहती है। सीमित संसाधनों और उत्पादन क्षमता के कारण समाज में मांग और आपूर्ति के बीच असंतुलन उत्पन्न होता है। इससे महँगाई बढ़ती है, बेरोजगारी बढ़ती है और लोगों की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति कठिन हो जाती है।
खाद्य पदार्थ, पानी, ऊर्जा और आवास जैसी
जरूरतों की कमी समाज में असंतोष और असमानता
संक्षेपण
बढ़ती जनसंख्या सीमित धरती पर इंसानों
के लिए एक प्रकार
की कैद बन गई
है। पृथ्वी के संसाधन जैसे
भूमि, जल, और हवा
सीमित हैं, जबकि लोगों
की संख्या निरंतर बढ़ रही है।
इससे रहने की जगह,
स्वच्छ हवा, और भोजन
की कमी होने लगी
है। भीड़भाड़ वाले शहर, प्रदूषण,
बेरोजगारी और प्रतिस्पर्धा ने
जीवन को संघर्षमय बना
दिया है। इंसान अपने
ही बनाए दबावों में
जकड़ गया है, जहाँ
स्वतंत्रता और प्राकृतिक संतुलन
धीरे-धीरे खत्म होते
जा रहे हैं।
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